अयोध्या का इतिहास और वर्तमान भाग --1

अयोध्या के रामकोट मुहल्ले में एक टीले पर लगभग पाँच सौ साल पहले वर्ष 1528 से 1530 में बनी मस्जिद पर लगे शिलालेख और सरकारी दस्तावेज़ों के मुताबिक़ यह मस्जिद हमलावर मुग़ल बादशाह बाबर के आदेश पर उसके गवर्नर मीर बाक़ी ने बनवाई.

लेकिन इसका कोई रिकार्ड नहीं है कि बाबर अथवा मीर बाक़ी ने यह ज़मीन कैसे हासिल की और मस्जिद से पहले वहाँ क्या था? मस्जिद के रख-रखाव के लिए मुग़ल काल, नवाबी और फिर ब्रिटिश शासन में वक़्फ़ के ज़रिए एक निश्चित रक़म मिलती थी.

ऐसा कहा-सुना जाता है कि इस मस्जिद को लेकर स्थानीय हिंदुओं और मुसलमानों में कई बार संघर्ष हुए.

अनेक ब्रिटिश इतिहासकारों ने लिखा है कि 1855 में नवाबी शासन के दौरान मुसलमानों ने बाबरी मस्जिद पर जमा होकर कुछ सौ मीटर दूर अयोध्या के सबसे प्रतिष्ठित हनुमानगढ़ी मंदिर पर क़ब्ज़े के लिए धावा बोला. उनका दावा था कि यह मंदिर एक मस्जिद तोड़कर बनायी गई थी.

इस ख़ूनी संघर्ष में हिंदू वैरागियों ने हमलावरों को हनुमान गढ़ी से खदेड़ दिया जो भागकर बाबरी मस्जिद परिसर में छिपे मगर वहाँ भी तमाम मुस्लिम हमलावर क़त्ल कर दिए गए, जो वहीं कब्रिस्तान में दफ़न हुए.
कई गजेटियर्स, विदेशी यात्रियों के संस्मरणों और पुस्तकों में उल्लेख है कि हिंदू समुदाय पहले से इस मस्जिद के आसपास की जगह को राम जन्म्स्थान मानते हुए पूजा और परिक्रमा करता था.


1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद नवाबी शासन समाप्त होने पर ब्रिटिश क़ानून, शासन और न्याय व्यवस्था लागू हुई. माना जाता है कि इसी दरम्यान हिंदुओं ने मस्जिद के बाहरी हिस्से पर क़ब्ज़ा करके चबूतरा बना लिया और भजन-पूजा शुरू कर दी, जिसको लेकर वहाँ झगड़े होते रहते थे.

बाबरी मस्जिद के एक कर्मचारी मौलवी मोहम्मद असग़र ने 30 नवंबर 1858 को लिखित शिकायत की कि हिंदू वैरागियों ने मस्जिद से सटाकर एक चबूतरा बना लिया है और मस्जिद की दीवारों पर राम-राम लिख दिया है.

शांति व्यवस्था क़ायम करने के लिए प्रशासन ने चबूतरे और मस्जिद के बीच दीवार बना दी लेकिन मुख्य दरवाज़ा एक ही रहा. इसके बाद भी मुसलमानों की तरफ़ से लगातार लिखित शिकायतें होती रहीं कि हिंदू वहाँ नमाज़ में बाधा डाल रहे हैं.

अप्रैल 1883 में निर्मोही अखाड़ा ने डिप्टी कमिश्नर फ़ैज़ाबाद को अर्ज़ी देकर मंदिर बनाने की अनुमति माँगी, मगर मुस्लिम समुदाय की आपत्ति पर अर्ज़ी नामंज़ूर हो गई.

इसी बीच मई 1883 में मुंशी राम लाल और राममुरारी राय बहादुर का लाहौर निवासी कारिंदा गुरमुख सिंह पंजाबी वहाँ पत्थर वग़ैरह सामग्री लेकर आ गया और प्रशासन से मंदिर बनाने की अनुमति माँगी, मगर डिप्टी कमिश्नर ने वहाँ से पत्थर हटवा दिए.

निर्मोही अखाड़े के महंत रघबर दास ने चबूतरे को राम जन्म स्थान बताते हुए भारत सरकार और मोहम्मद असग़र के ख़िलाफ़ सिविल कोर्ट में पहला मुक़दमा 29 जनवरी 1885 को दायर किया. मुक़दमे में 17X21 फ़ीट लम्बे-चौड़े चबूतरे को जन्मस्थान बताया गया और वहीं पर मंदिर बनाने की अनुमति माँगी गई, ताकि पुजारी और भगवान दोनों धूप, सर्दी और बारिश से निजात पाएँ.

इसमें दावा किया गया कि वह इस ज़मीन के मालिक हैं और उनका मौक़े पर क़ब्ज़ा है. सरकारी वक़ील ने जवाब में कहा कि वादी को चबूतरे से हटाया नहीं गया है, इसलिए मुक़दमे का कोई कारण नहीं बनता. मोहम्मद असग़र ने अपनी आपत्ति में कहा कि प्रशासन बार-बार मंदिर बनाने से रोक चुका है. 

जज पंडित हरिकिशन ने मौक़ा मुआयना किया और पाया कि चबूतरे पर भगवान राम के चरण बने हैं और मूर्ति थी, जिनकी पूजा होती थी. इसके पहले हिंदू और मुस्लिम दोनों यहाँ पूजा और नमाज़ पढ़ते थे, यह दीवार झगड़ा रोकने के लिए खड़ी की गई. जज ने मस्जिद की दीवार के बाहर चबूतरे और ज़मीन पर हिंदू पक्ष का क़ब्ज़ा भी सही पाया.

इतना सब रिकॉर्ड करने के बाद जज पंडित हारि किशन ने यह भी लिखा कि चबूतरा और मस्जिद बिलकुल अग़ल-बग़ल हैं, दोनों के रास्ते एक हैं और मंदिर बनेगा तो शंख, घंटे वग़ैरह बजेंगे, जिससे दोनों समुदायों के बीच झगड़े होंगे लोग मारे जाएँगे इसीलिए प्रशासन ने मंदिर बनाने की अनुमति नहीं दी.

जज ने यह कहते हुए निर्मोही अखाड़ा के महंत को चबूतरे पर मंदिर बनाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया कि ऐसा करना भविष्य में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दंगों की बुनियाद डालना होगा.

इस तरह मस्जिद के बाहरी परिसर में मंदिर बनाने का पहला मुक़दमा निर्मोही अखाड़ा साल भर में हार गया.

डिस्ट्रिक्ट जज चैमियर की कोर्ट में अपील दाख़िल हुई. मौक़ा मुआयना के बाद उन्होंने तीन महीने के अंदर फ़ैसला सुना दिया. फ़ैसले में डिस्ट्रिक्ट जज ने कहा, “हिंदू जिस जगह को पवित्र मानते हैं वहां मस्जिद बनाना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन चूँकि यह घटना 356 साल पहले की है इसलिए अब इस शिकायत का समाधान करने के लिए बहुत देर हो गई है."

जज के मुताबिक़, “इसी चबूतरे को राम चंद्र का जन्मस्थान कहा जाता है.”

जज ने यह भी कहा कि मौजूदा हालत में बदलाव से कोई लाभ होने के बजाय नुक़सान ही होगा. चैमियर ने सब जज हरि किशन के जजमेंट का यह अंश अनावश्यक कहते हुए ख़ारिज कर दिया कि चबूतरे पर पुराने समय से हिंदुओं का क़ब्ज़ा है और उसके स्वामित्व पर कोई सवाल नहीं उठ सकता.

निर्मोही अखाड़ा ने इसके बाद अवध के जुडिशियल कमिश्नर डब्लू यंग की अदालत में दूसरी अपील की. जुडिशियल कमिश्नर यंग ने 1 नवंबर 1886 को अपने जजमेंट में लिखा कि "अत्याचारी बाबर ने साढ़े तीन सौ साल पहले जान-बूझकर ऐसे पवित्र स्थान पर मस्जिद बनाई जिसे हिंदू रामचंद्र का जन्मस्थान मानते हैं. इस समय हिंदुओं को वहाँ जाने का सीमित अधिकार मिला है और वे सीता-रसोई और रामचंद्र की जन्मभूमि पर मंदिर बनाकर अपना दायरा बढ़ाना चाहते हैं".

जजमेंट में यह भी कह दिया गया कि रिकार्ड में ऐसा कुछ नहीं है जिससे हिंदू पक्ष का किसी तरह का स्वामित्व दिखे.

इन तीनों अदालतों ने अपने फ़ैसले में विवादित स्थल के बारे में हिंदुओं की आस्था, मान्यता और जनश्रुति का उल्लेख तो किया लेकिन अपने फ़ैसले का आधार रिकार्ड पर उपलब्ध सबूतों को बनाया और शांति व्यवस्था की तत्कालीन ज़रूरत पर ज़्यादा ध्यान दिया.

1934 में बक़रीद के दिन पास के एक गाँव में गोहत्या को लेकर दंगा हुआ जिसमें बाबरी मस्जिद को नुकसान पहुंचा लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसकी मरम्मत करवा दी.



शिया-सुन्नी विवाद
1936 में मुसलमानों के दो समुदायों शिया और सुन्नी के बीच इस बात पर क़ानूनी विवाद उठ गया कि मस्जिद किसकी है. वक़्फ़ कमिश्नर ने इस पर जाँच बैठाई. मस्जिद के मुतवल्ली यानी मैनेजर मोहम्मद ज़की का दावा था कि मीर बाक़ी शिया था, इसलिए यह शिया मस्जिद हुई.

लेकिन ज़िला वक़्फ़ कमिश्नर मजीद ने 8 फ़रवरी 1941 को अपनी रिपोर्ट में कहा कि मस्जिद की स्थापना करने वाला बादशाह सुन्नी था और उसके इमाम तथा नमाज़ पढ़ने वाले सुन्नी हैं, इसलिए यह सुन्नी मस्जिद हुई.

इसके बाद शिया वक़्फ़ बोर्ड ने सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के ख़िलाफ़ फ़ैज़ाबाद के सिविल जज की कोर्ट में मुक़दमा कर दिया.

सिविल जज एसए अहसान ने 30 मार्च 1946 को शिया समुदाय का दावा ख़ारिज कर दिया. यह मुक़दमा इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि आज भी शिया समुदाय के कुछ नेता इसे अपनी मस्जिद बताते हुए मंदिर निर्माण के लिए ज़मीन देने की बात करते हैं.



जब अंग्रेज़ी राज ख़त्म होने को आया तो हिंदुओं की तरफ़ से फिर चबूतरे पर मंदिर निर्माण की हलचल हुई लेकिन सिटी मजिस्ट्रेट शफ़ी ने दोनों समुदायों के परामार्श से लिखित आदेश पारित किया कि न तो चबूतरा पक्का बनाया जाएगा, न मूर्ति रखी जाएगी और दोनों  पक्ष यथास्थिति बहाल रखेंगे.



इसके बाद भी मुसलमानों की ओर से लिखित शिकायतें आती रहीं कि हिंदू वैरागी नमाज़ियों को परेशान करते हैं.

देश विभाजन के बाद बड़ी तादाद में अवध के मुसलमान, ख़ास तौर पर रसूख वाले लोग, पाकिस्तान चले गए. विभाजन के दंगों को रोकने और सांप्रदायिक सौहार्द क़ायम करने की कोशिश में लगे महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई.

राम मंदिर बना चुनावी मुद्दा

इसी बीच समाजवादियों ने कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई और आचार्य नरेंद्र देव समेत सभी विधायकों ने विधानसभा से त्यागपत्र दे दिया. मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने अयोध्या उपचुनाव में आचार्य नरेंद्र देव के ख़िलाफ़ एक बड़े हिंदू संत बाबा राघव दास को उम्मीदवार बनाया.

अयोध्या में मंदिर निर्माण इस चुनाव में अहम मुद्दा बन गया और बाबा राघव दास को समर्थन मिलने लगा. मुख्यमंत्री पंत ने अपने भाषणों में बार-बार कहा कि आचार्य नरेंद्र देव राम को नहीं मानते. समाजवाद के पुरोधा आचार्य नरेंद्र देव चुनाव हार गए.

वक़्फ़ इंस्पेक्टर मोहम्मद इब्राहिम 10 दिसंबर 1948 को अपनी रिपोर्ट में मस्जिद पर ख़तरे के बारे में प्रशासन को विस्तार से सतर्क करते हैं. उन्होंने लिखा कि हिंदू वैरागी वहाँ मस्जिद के सामने तमाम कब्रों-मज़ारों को साफ़ करके रामायण पाठ कर रहे हैं और वे जबरन मस्जिद पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं.





इंस्पेक्टर ने लिखा कि अब मस्जिद में केवल शुक्रवार की नमाज़ हो पाती है. हिंदुओं की भीड़ लाठी-फरसा वग़ैरह लेकर इकट्ठा हो रही है.

बाबा राघव दास की जीत से मंदिर समर्थकों के हौसले बुलंद हुए और उन्होंने जुलाई 1949 में उत्तर प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर फिर से मंदिर निर्माण की अनुमति माँगी. उत्तर प्रदेश सरकार के उप-सचिव केहर सिंह ने 20 जुलाई 1949 को फ़ैज़ाबाद डिप्टी कमिश्नर केके नायर से जल्दी से अनुकूल रिपोर्ट माँगते हुए पूछा कि वह ज़मीन नजूल की है या नगरपालिका की.

सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह ने 10 अक्टूबर को कलेक्टर को अपनी रिपोर्ट दी जिसमें उन्होंने कहा कि वहाँ मौक़े पर मस्जिद के बग़ल में एक छोटा-सा मंदिर है. इसे राम जन्मस्थान मानते हुए हिंदू समुदाय एक सुंदर और विशाल मंदिर बनाना चाहता है. सिटी मजिस्ट्रेट ने सिफ़ारिश की कि यह नजूल की ज़मीन है और मंदिर निर्माण की अनुमति देने में कोई रुकावट नहीं है.

वह संक्रांति काल था और कुछ ही दिनों में देश में नया संविधान लागू होने वाला था.



मस्जिद के अंदर मूर्तियाँ

हिंदू वैरागियों ने अगले महीने 24 नवंबर से मस्जिद के सामने क़ब्रिस्तान को साफ़ करके वहाँ यज्ञ और रामायण पाठ शुरू कर दिया जिसमें काफ़ी भीड़ जुटी. झगड़ा बढ़ता देखकर वहाँ एक पुलिस चौकी बनाकर सुरक्षा में अर्धसैनिक बल पीएसी लगा दी गई.

पीएसी तैनात होने के बावजूद 22-23 दिसंबर 1949 की रात अभय रामदास और उनके साथियों ने दीवार फाँदकर राम-जानकी और लक्ष्मण की मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर रख दीं और यह प्रचार किया कि भगवान राम ने वहाँ प्रकट होकर अपने जन्मस्थान पर वापस क़ब्ज़ा प्राप्त कर लिया है.

मुस्लिम समुदाय के लोग शुक्रवार सुबह की नमाज़ के लिए आए मगर प्रशासन ने उनसे कुछ दिन की मोहलत माँगकर उन्हें वापस कर दिया. कहा जाता है कि अभय राम की इस योजना को गुप्त रूप से कलेक्टर नायर का आशीर्वाद प्राप्त था. वह सुबह मौक़े पर आए तो भी अतिक्रमण हटवाने की कोशिश नहीं की, बल्कि क़ब्ज़े को रिकॉर्ड पर लाकर पुख़्ता कर दिया.

सिपाही माता प्रसाद की सूचना पर अयोध्या कोतवाली के इंचार्ज रामदेव दुबे ने एक मुक़दमा क़ायम किया, जिसमें कहा गया कि पचास-साठ लोगों ने दीवार फाँदकर मस्जिद का ताला तोड़ा, मूर्तियाँ रखीं और जगह-जगह देवी-देवताओं के चित्र बना दिए. रपट में यह भी कहा गया कि इस तरह बलवा करके मस्जिद को अपवित्र कर दिया गया.

इसी पुलिस रिपोर्ट के आधार पर अतिरिक्त सिटी मजिस्ट्रेट ने उसी दिन दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 145  के तहत कुर्की का नोटिस जारी कर दिया.

उधर दिल्ली में नाराज़ प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 26 दिसंबर को मुख्यमंत्री पंत को तार भेजकर कहा, “अयोध्या की घटना से मैं बहुत विचलित हूँ. मुझे पूरा विश्वास है कि आप इस मामले में व्यक्तिगत रुचि लेंगे. ख़तरनाक मिसाल कायम की जा रही है, जिसके परिणाम बुरे होंगे.”

उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव ने कमिश्नर फ़ैज़ाबाद को लखनऊ बुलाकर डाँट लगाई और पूछा कि प्रशासन ने इस घटना को क्यों नहीं रोका और फिर सुबह मूर्तियाँ क्यों नहीं हटवाईं?

ज़िला मजिस्ट्रेट नायर ने इसका उल्लेख करते हुए चीफ़ सेक्रेटरी भवान सहाय को लंबा पत्र लिखा जिसमें कहा कि इस मुद्दे को व्यापक जन समर्थन है और प्रशासन के थोड़े से लोग उन्हें रोक नहीं सकते. अगर हिंदू नेताओं को गिरफ़्तार किया जाता तो हालात और ख़राब हो जाते.

बाग़ी तेवर में नायर ने लिखा कि वह और ज़िला पुलिस कप्तान मूर्ति हटाने से बिल्कुल सहमत नहीं हैं और अगर सरकार किसी क़ीमत पर ऐसा करना ही चाहती है तो पहले उन्हें वहाँ से हटाकर दूसरा अफ़सर तैनात कर दे.

आरएसएस और हिंदू सभा के लोग सक्रिय रूप से क़ब्ज़े की कार्यवाही में सहयोग कर रहे थे. बाद में ये बात सामने आई कि ज़िला कलेक्टर नायर और सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह दोनों आरएसएस से जुड़े थे. नायर तो बाद में जनसंघ के टिकट पर लोकसभा का चुनाव भी जीते.

केंद्र और राज्य सरकार हस्तक्षेप करती उससे पहले ही क़ब्ज़े को पुख़्ता शक्ल देने के लिए अतिरिक्त सिटी मजिस्ट्रेट मार्कण्डेय सिंह ने यह कहते हुए विवादित बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि इमारत को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के तहत कुर्क कर लिया, उनका कहना था कि उस पर स्वामित्व और क़ब्ज़े को लेकर हिंदू-मुसलमानों में हो रहे झगड़े से शांति भंग हो सकती है.

नगरपालिका चेयरमैन प्रियदत्त राम को रिसीवर नियुक्त कर उन्हें मूर्तियों की पूजा और भोग वग़ैरह की ज़िम्मेदारी दी गई.


















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