#अशोक_पेपरमील_दरभंगा का इतिहास और वर्तमान
अशोक पेपर मिल की शुरुआत 1958 में दरभंगा महाराज ने की थी, इसके लिए किसानों से ज़मीन मांगी गई और बदले में उन्हें फ़ैक्ट्री लगाने के फ़ायदे बताए गए.
साल 1989 में इस मिल का मालिकाना हक़ बिहार सरकार को मिला लेकिन 1990 तक बिहार सरकार ने चीज़ें अपने हाथ में नहीं लीं.
इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और कोर्ट ने इंडस्ट्रियल पॉलिसी और प्रमोशन विभाग के सचिव से अशोक पेपर मिल का रिवाइवल प्लान कोर्ट में पेश करने को कहा. साल 1996 में कोर्ट में एक ड्राफ्ट पेश किया गया और मिल के निजीकरण की सिफ़ारिश हुई, जिसे कोर्ट ने सहमति दे दी.
साल 1997 में आईडीबीआई बैंक मर्चेंट बैंकर बना और अशोक पेपर मिल का सौदा मुंबई की कंपनी नुवो कैपिटल एंड फ़ाइनैंस लिमिटेड के मालिक धरम गोधा को मिल गया.
इसके बाद भी मिल लगभग 6 महीने ही चल सकी और नवंबर 2003 में इसका ऑपरेशन पूरी तरह से बंद हो गया. लगभग 400 एकड़ में फैली इस फ़ैक्ट्री में आज जंगल जैसी घास फैली हुई है और ये ज़हरीले सापों का डेरा बनकर रह गया है.
पास के गांव में रहने वाले महावीर यादव कहते हैं, "इतने नेता आए, देखे और चले गए लेकिन कुछ ना हुआ. अब ये मिल बंद ही है. यही हमारा दुर्भाग्य है, कोई नेता ऐसा हो जो कुछ कर सके."
"बिहार का आदमी तो भूखों मर रहा है, दूर देश जा रहा है. नीतीश कुमार ने तो जो किया, हम क्या बताएं. नल-जल में जितना पैसा ख़र्च किया है अगर उतना कारखाने में खर्च होता 50 गो कारखाना खुल जाता."
न्यूज़क्लिक की एक रिपोर्ट कहती है कि जो समझौता गोधा और सरकार के बीच हुआ उसके तहत 504 करोड़ रुपये का निवेश अशोक पेपर मिल में करना था. लेकिन ये हुआ ही नहीं.
38 बिंदुओं वाले इस समझौते के हिसाब से 18 महीने के भीतर मिल को चालू करना था. कर्मचारियों के बकाया वेतन देने थे. इसके अनुसार मिल की संपत्ति को बाहर ले जाना मना था. सिर्फ़ वही मशीनें बाहर लाई जा सकती थीं जिन्हें रिपेयरिंग की ज़रूरत थी.
लेकिन उपेंद्र यादव बताते हैं, "यहां से ट्रक में सारा फ़ैक्ट्री का सामान भर-भर कर जाता रहा. साल 2012 की बात है जब ट्रक में मशीन भर कर ले जाया जा रहा था तो सब कर्मचारी प्रदर्शन करने लगे."
सुंदर आलेख
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