दास्तां बिहार के जुट मिल की


दरभंगा - समस्तीपुर रेलखंड पर समस्तीपुर से दो किमी  पहले मुक्तापुर में 84 एकड़ रकबा में स्थित रमेश्वर जूट मिल की स्थापना 1926 में हुई थी। 1954 तक दरभंगा महाराज ने इसे चलाया। इसके बाद 76 तक मेसर्स बिरला ब्रदर्स ने चलाया। 1976 में एमपी बिरला ने इसका अधिग्रहण कर लिया। 1986 से मिल का स्वामित्व ¨वसम इंडिया के पास है। 125 करोड़ के सालाना कारोबार वाली उत्तर भारत की एकमात्र जूट मिल बिहार के लिए गौरव थी। बंद होने से पहले तक इस जूट मिल में 300 लूम चल रहे थे। इसकी अधिकृत पूंजी ५० लाख थी और प्रदत्त पूंजी करीब २६ लाख उस ज़माने में थी . इसी तरह कृषि पर आधारित एक और उद्योग इस रेल खंड के थलवाड़ा और हायाघाट के बीच रमेश्वरनगर में  ३००+एकड़ में अशोक पेपर मिल लिमिटेड  १९५६ में स्थापित हुई जिसे बाद में संयुक्त उपक्रम  के अधीन चलाया गया .बिहार सरकार ,असम सरकार और IDBI द्वारा . आज मात्र इसकी जमीन का अनुमानित  बाजार मूल्य १००० करोड़  है. इस मिल में अल्लिमाण्ड फ्रांस  की मशीन लगायी गयी थी .   थलवाड़ा स्टेशन से रमेश्वर नगर तक नैरो गेज रेल लाइन बिछी थी . ये सभी कृषि आधारित उद्योग था जिससे लाखों किसान जुड़े थे .

 मिल 6 जून 2017 से बंद थी, लेकिन 13 सितंबर 2020 को राज्य के उद्योग मंत्री महेश्वर हज़ारी जो समस्तीपुर के ही कल्याणपुर से विधायक हैं, उनकी मौजूदगी में मिल दोबारा खुली.

जब हम मिल पर पहुंचे तो ऐसा लगा ही नहीं कि मिल में काम चल रहा है. वहां मौजूद लोगों से बात करने पर हमें पता चला कि मिल तो खुल गई लेकिन मिल खुलने की जो सबसे बड़ी निशानी होती है- हूटर बजना, वो अब तक मिल में नहीं बज रहा है.

फ़ैक्ट्री में बेहद कम संख्या में मज़दूर आ रहे हैं और लगभग 80 फ़ीसदी तक मिल बंद ही पड़ी हुई है. यहां काम करने वाले लोगों का मानना है कि इस मिल को चुनाव में लोगों की नाराज़गी कम करने के इरादे से खोला गया.

यहां सब-स्टाफ़ गार्ड के तौर पर तैनात संजय कुमार सिंह कहते हैं, "उद्योग मंत्री ने हमारे फ़ैक्ट्री मालिक से बात किया, बोला कि फ़ैक्ट्री का सारा बक़ाया दिया जाएगा. फ़ैक्ट्री का हूटर भी बजा. हम लोगों को लगा कि अब तो सब ठीक हो जाएगा, लेकिन आज इतने दिन हो गए. 11 करोड़ 65 लाख का बक़ाया जो बिहार सरकार के पास है वो नहीं मिला."

"मिल खुल गया है लेकिन हूटर नहीं बजता. उद्योग मंत्री ने मालिक से कहा था कि तीन दिन में ही पैसा मिल जाएगा, अब कहते हैं कि चुनाव संहिता लग गया, अभी नहीं मिलेगा."

राजू इस मिल में काम करने वाले मज़दूरों में से एक हैं. वह बताते हैं, "तीन साल का पैसा मिला नहीं है लेकिन मालिक क्या करेगा जो सरकार उसको पैसा नहीं देगी तो. वो तो अपने दम पर चला ही रहा है."

2017 में बंद होने से पहले इस मिल में 5000 लोग काम किया करते थे.

80 एकड़ में फैले इस मिल की शुरुआत 1926 में दरभंगा महाराज ने की थी, 1986 में इसे विन्सम इंडस्ट्रीज़ को बेच दिया गया लेकिन बाद में विन्सम ने इस कंपनी को पश्चिम बंगाल के एक व्यापारी बिनोद झा को बेच दिया.

इस मिल के बंद होने का कारण इसका लगातार आर्थिक संकट में फंसते जाना है.

मिल में साल 2012, 2014 और 2019 में आग लगी जिससे प्लांट का बड़ा नुक़सान हुआ. जूट मिल का बिजली बिल बकाया था और बिहार सरकार पर जूट मिल का 18 करोड़ रुपये बक़ाया था. पैसों के लेन-देन का मामला गहराता गया और ये मामला पटना हाईकोर्ट जा पहुंचा.

आख़िरकार मिल को बिजली बिल का भुगतान करने को कहा गया और सरकार को कंपनी के 18 करोड़ रुपये देने को कहा गया.

अभी भी जूट मिल का 11 करोड़ 65 लाख रुपये बिहार सरकार पर बक़ाया है. जूट मिल के मालिक ने उद्योग मंत्री के वादे पर मिल तो खोल दी लेकिन अब मिल के पास नया कच्चा माल लाने के पैसे नहीं हैं. लिहाज़ा मिल का हूटर बजाकर मिल नहीं खोली जा रही है.

मिल के कर्मचारी हरिया बताते हैं, "ये सब नेता लोग आता है और पागल बना कर जाता है. प्रिंस राज (समस्तीपुर से सांसद) भी आए थे चुनाव से पहले तो मिल का हूटर बजा था, बोले कि जब संसद में जाएंगे तो मिल का मुद्दा रखेंगे. बस उस दिन हूटर बज गया लेकिन एक दिन भी फ़ैक्ट्री नहीं खुला. ये भी (उद्योग मंत्री) यही करने आए हैं."

बिहार के सीमांचल का (कटिहार, किशनगंज, पूर्णिया और अररिया) इलाक़ा जूट के उत्पादन के लिए जाना जाता है. लेकिन सरकार की ओर से बढ़ावा ना मिलने और किसी भी तरह का निवेश ना होने के कारण यहां का जूट उत्पादन 10 क्विंटल सालाना पर आ चुका है


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