हाले बयाँ मिथिला के चिनी मिलौ का
बिहार चीनी के उत्पादन के लिए जाना जाता था. देश के कुल चीनी उत्पादन का 40 फ़ीसदी हिस्सा बिहार में होता था.
देश की आज़ादी से पहले बिहार में 33 चीनी मिलें हुआ करती थीं लेकिन आज 28 चीनी मिलें हैं इनमें से भी सिर्फ़ 11 मिलें ऐसी हैं जो इस वक्त चालू हालत में हैं. और इनमें से भी 10 मिलों का मालिकाना हक़ प्राइवेट कंपनियों के पास है.
साल 1933 से लेकर 1940 तक बिहार में चीनी मिलों की संख्या बढ़ती गई और उत्पादन भी ख़ूब बढ़ा लेकिन इसके बाद चीनी मिलों की हालत बिगड़ने लगी.
इसके बाद साल 1977 से लेकर 1985 तक बिहार सरकार ने इन चीनी मिलों का अधिग्रहण शुरू किया.
इस दौरान दरभंगा की सकरी चीनी मिल, रयाम मिल, लोहट मिल, पुर्णिया की बनमनखी चीनी मिल, पूर्वी चंपारण और समस्तीपुर की मिलें सरकार के पास आ गईं.
साल 1997-98 के दौर में ये मिलें संभाली नहीं जा सकीं और एक के बाद एक मिलें बंद होने लगीं.
दरभंगा की सकरी मिल बिहार में बंद होने वाली सबसे पहली चीनी मिल मानी जाती है. साल 1977 में जब राज्य की कर्पूरी ठाकुर सरकार ने इस मिल का अधिग्रहण किया था तो लोगों में उम्मीद जगी कि सबकुछ ठीक हो जाएगा.
इस मिल में काम करने वाले अघनू यादव कहते हैं, "1945-1947 में बिहार में 33 मिल थीं आज 10 मिल चल रही हैं वो भी प्राइवेट में चलती हैं. हमारी ज़मीन गन्ना के लिए सबसे उपयुक्त है लेकिन हम गन्ना नहीं उगा सकते. इतनी लड़ाई लड़ी अब तो लगता है, बस पैसा मिल जाए हमारा."
सकरी मिल नौजवानों के लिए बस एक खंडहर भर है, उन्होंने बस इसके क़िस्से अपने बड़े-बुज़ुर्गों से सुने हैं.
विश्वजीत झा को नौकरी नहीं मिली तो वो पिता के साथ किसानी का काम करने लगे.
सकरी को लेकर अपनी याद साझा करते हुए वह कहते हैं, "हमारे बाबा कहते थे कि हमारा गुजर बसर इस मिल से चलता था. नीतीश जी के शासन में जो हमको याद है, वो ये कि इस मिल का शाम में गेट खुलता था और यहां की सारी मशीनें-पुर्जे ट्रकों में लाद कर ले जाई जाती थी."
"आज इस मिल का ताला खुलेगा तो इसमें कुछ भी नहीं मिलेगा. इस मिल का निजीकरण कर दिया गया. सरकार कहती है कि मिल चलाने में घाटा होता है. तो सरकार को ही घाटा है तो आम लोग क्या कर सकेंगे. अगर सरकार सारे संसाधन लेकर चीनी नहीं बनवा सकती तो किसान क्या करेगा."
"लालू जी ने क्या किया? नीतीश जी ने क्या किया? नीतीश जी ने रोड बनवा दिया लेकिन क्या हम रोड पर बैठ कर खाना खाएं? हम तो इस लायक भी नहीं हैं कि अपने बच्चे को ठीक से पढ़ा सकें कि वो कहीं नौकरी पा जाए. लेकिन जब पढ़ेगा नहीं तो यहां तो कोई काम है नहीं तो, बाहर जा कर मज़दूरी ही करेगा."
सभी कलपुर्ज़े निकाले और बेच दिए
बात करते हैं साल 2005 की. बिहार स्टेट शुगर डेवेलपमेंट कॉरपोरेशन के तहत तमाम चीनी मिलों को रिवाइव करने का काम सौंपा गया.
इसके बाद राज्य सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी गई जिसमें दरभंगा की रयाम मिल, लोहट मिल और मोतीपुर मिल को छोड़ कर अन्य सभी मिल को कृषि पर आधारित अन्य फ़ैक्ट्री में तब्दील करने का प्रस्ताव पेश किया गया. इस रिपोर्ट में सकरी मिल को डिस्टलरी (शराब कारखाना) बनाने का भी प्रस्ताव दिया गया.
साल 2008 में मिल की नीलामी हुई और इनमें से ज़्यादातर मिलों को प्राइवेट कंपनियों ने ख़रीदा. रयाम और सकरी मिल को श्री तिरहुत इंडस्ट्री ने ख़रीदा है.
लेकिन ये मिल कभी नहीं खुल पाईं. जिन कंपनियों को इन प्लांट में निवेश करके इन्हें चलाना था उन्होंने कभी इसमें निवेश ही नहीं किया.
रामेश्वर झा इस मिल के कर्मचारी रहे हैं. वह कहते हैं, "इन प्राइवेट कंपनियों को ये मिल चलानी ही नहीं थी, उन्होंने इसके सभी कलपुर्ज़े निकाले और बेच दिए."
वो ये भी मानते हैं कि "बिहार में इन प्राइवेट कंपनियों को चीनी मिल नहीं चलानी थी बल्कि इथनॉल का उत्पादन करना था."
मौजूदा वक़्त में लोहट चीनी मिल, जिसके मुनाफ़े से 1933 में सकरी मिल खोली गई थी, वहां अब जंग लगी और खोखली हो चुकी लोहे की मशीनें निवेश के इंतज़ार में बर्बाद हो चुकी हैं.
रयाम मिल का हाल तो और भी बुरा है. वहां अब सिर्फ़ ज़मीन का टुकड़ा बचा हुआ है.
यहां काम करने वाले अपने बक़ाया वेतन का इंतज़ार करते हैं. सकरी मिल बंद हुई 1997 में लेकिन राज्य की नीतीश कुमार सरकार ने यहां के मज़दूरों को 2015 तक का वेतन देने की बात की है. और मुख्यमंत्री के इस आश्वासन में कई लोगों ने उन पैसों का हिसाब अभी ही लगा लिया है जो उन्हें मिलेंगे. लेकिन ये पैसे उन्हें कब मिलेंगे इसका जवाब उनके पास नहीं है.
मधुबनी की लोहट मिल में बतौर गार्ड काम करने वाले मति-उर-रहमान रोज़ चार किलोमीटर साइकिल चलाकर लोहट मिल आते हैं और इस जंगलनुमां कारख़ाने की देख-रेख करते हैं.
वह कहते हैं, "नीतीश कुमार ने कोशिश की थी कि कोई इसको लीज़ पर ले ले लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. अब तो सरकार भी छोड़ दी है और कोई पार्टी भी नहीं आ रही है."
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